Karnataka Fake News Bill 2025: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम कानून
परिचय
कर्नाटक सरकार ने हाल ही में एक प्रस्तावित कानून का मसौदा सार्वजनिक चर्चा के लिए प्रस्तुत किया है, जिसका उद्देश्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फैलने वाली भ्रामक और झूठी सूचनाओं पर सख्त नियंत्रण स्थापित करना है। इस प्रस्तावित विधेयक में ऐसे मामलों को दंडनीय अपराध बनाने की योजना शामिल हैं जैसे कि ₹10 लाख जुर्माना और 7 साल जेल तक की सज़ा। इस बिल की अवधारणा ने व्यापक विरोध और चर्चा पैदा की है क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठा रहा है।
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प्रमुख प्रावधान:
2 से 5 वर्ष जेल, गंभीर मामलों में 7 साल तक की सज़ा और ₹10 लाख जुर्माना।
“disrespect to Sanatan beliefs”, “anti-feminist content” सहित अस्पष्ट श्रेणियां शामिल।
सोशल मीडिया पोस्टर्स और प्लेटफॉर्म दोनों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
एक छह‑सदस्यीय “Fake News Regulatory Authority” का गठन, जिसमें अधिकांश सदस्य राज्य सरकार द्वारा नामित होंगे।
विशेष न्यायालय बनाए जाने का प्रस्ताव ताकि मामलों की तीव्र सुनवाई हो सके।
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⚠️ आपत्तियां और चिंताएं:
बिल अस्पष्ट है, कई परिभाषाएं व्यापक और अनियंत्रित, जिससे स्वत: सेंसरशिप हो सकती है।
मुख्य आलोचना:
संबंधित PRIOR JUDGEMENTS: Shreya Singhal v. Union of India (2015) में सुप्रीम कोर्ट ने सजा‑युक्त अस्पष्ट डिजिटल कानून को संविधान विरोधी ठहराया था।
Civil rights organizations, जैसे Internet Freedom Foundation (IFF) और SFLC.in, ने बताया कि यह क्षेत्रीय विधेयक फ्री स्पीच को कुंद कर सकता है और नियामक संस्था की संवैधानिक स्वतंत्रता संदिग्ध है।
Press freedom advocates का कहना है कि यह राज्य को ‘truth arbiter’ बना सकता है, जो प्रेस और आम जनता दोनों की आवाज़ों पर अंकुश लगा सकता है।
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संभावित प्रभाव:
सामाजिक मीडिया पर डर का माहौल: कोई भी व्यक्ति सच न जानकर भी परेशान हो सकता है।
कलात्मक या क्रिएटिव कंटेंट (जैसे satire, parody) भी अपराध की श्रेणी में आ सकते हैं।
ब्लॉगर्स, पत्रकार और जन‑सूचना मंचों पर प्रभाव: स्वतंत्र खबर और आलोचना प्रतिबंधित होने का खतरा।
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✅ सुझाव एवं सुझाव:
बिल को पुनर्लेखन किया जा रहा है ताकि constitutional compliance बनी रहे।
सरकार ने कहा है कि बिल पेश करने से पहले एक व्यापक public consultation और multi-stakeholder review किया जाएगा।
स्वतंत्र मीडिया प्रतिनिधियों को regulatory authority में शामिल करने पर विचार किया जा रहा है ताकि लोकतांत्रिक संतुलन बना रहे।
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निष्कर्ष:
यह बिल डिजिटल युग में misinformation नियंत्रित करने की ज़रूरत और आज़ादी के अधिकार के बीच बढ़ते टकराव का प्रतीक है।
जहां एक ओर misinformation गंभीर समस्या है, वही दूसरी ओर व्यापक और अस्पष्ट कानून अभिव्यक्ति की धरती पर नजर रखता है।
अगर कानून अस्पष्ट होगा, तो लोकतंत्र की नींव समझदार आलोचना और स्वतंत्र आवाज़ को दबाकर नहीं टिक सकती।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय इस दिशा में उदाहरण हैं कि आवाज़ की रक्षा कैसे की जाए।
आगे की परिपक्वता के लिए इस बिल में संवैधानिक सुदृढ़ता और स्वतंत्र समीक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।
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