मानहानि और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय – जुलाई 2025 विधिक अपडेट
प्रस्तावना
जुलाई 2025 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 499 तथा 500 के तहत आपराधिक मानहानि (Criminal Defamation) को वैध बनाये रखा। इस फैसले ने एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के बीच संतुलन की बहस को उजागर किया।
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मामला क्या था?
कुछ स्वतंत्र पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आपराधिक मानहानि कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। उनका कहना था कि यह कानून अब एक ऐसा हथियार बन चुका है जिसका इस्तेमाल विचारों को दबाने, खासकर सोशल मीडिया पर आलोचना करने वालों को डराने के लिए किया जा रहा है।
उनका तर्क था कि यह कानून पुराना, अस्पष्ट और सत्ता के दुरुपयोग का माध्यम बन गया है।
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सुप्रीम कोर्ट के मुख्य बिंदु
मुख्य न्यायाधीश आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने निम्नलिखित बातें स्पष्ट कीं:
1. प्रतिष्ठा का अधिकार भी मौलिक अधिकार है
कोर्ट ने कहा कि जैसे बोलने की आज़ादी जरूरी है, वैसे ही किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा भी अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संरक्षित है।
2. उचित प्रतिबंध जरूरी हैं
अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत सरकार को कुछ प्रतिबंध लगाने का अधिकार है, और आपराधिक मानहानि भी उन्हीं में आता है यदि इसे सही तरीके से लागू किया जाए।
3. दुरुपयोग पर रोक जरूरी
कोर्ट ने निचली अदालतों को निर्देश दिया कि वे हर मानहानि के केस को सीधे स्वीकार न करें, बल्कि यह देखें कि वास्तव में किसी की छवि को नुकसान हुआ है या नहीं।
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क्या बदलेगा इस फैसले से?
यह फैसला मिश्रित प्रतिक्रिया लेकर आया है। एक ओर यह लोगों को बदनामी से सुरक्षा देता है, दूसरी ओर यह उसी कानून को जीवित रखता है जिसका गलत उपयोग आम हो चुका है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए निर्देश अब निचली अदालतों को विवेक से काम लेने के लिए बाध्य करेंगे। इससे निरर्थक मामलों में कमी आने की उम्मीद है।
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आम नागरिकों के लिए इसका क्या मतलब है?
अगर आपकी बात तथ्यों पर आधारित है, तो वह मानहानि नहीं मानी जाएगी।
व्यंग्य, आलोचना या मतभेद अगर दुर्भावनापूर्ण नहीं है, तो वह अपराध नहीं है।
सोशल मीडिया पर विचार व्यक्त करते समय सावधानी जरूरी है, लेकिन डरना नहीं चाहिए।
अदालतों को दोनों अधिकारों – बोलने की आज़ादी और प्रतिष्ठा की रक्षा – को समान रूप से मान्यता देनी होगी।
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निष्कर्ष
यह निर्णय बताता है कि भारतीय न्यायपालिका अब ऐसे कानूनों को न केवल बनाए रख रही है, बल्कि उनके दुरुपयोग पर भी अंकुश लगा रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा, दोनों को साथ लेकर चलना ही आज की जरूरत है।
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